''दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या सुन्दरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे।''
उपरोक्त पंक्तियों में अलंकार हैं?
(A) उपमा
(B) रूपक
(C) यमक
(D) इनमें से कोई नहीं
उत्तर- इनमें से कोई नहीं - दी गई पंक्ति में संध्या को सुन्दर परी जैसा क्रियाकलाप करते हुए दर्शाया जा रहा है इसलिए यहां पर मानवीकरण अलंकार होगा।
- दी गई पंक्ति में संध्या को सुन्दर परी जैसा क्रियाकलाप करते हुए दर्शाया जा रहा है इसलिए यहां पर मानवीकरण अलंकार होगा।
कविता
भावपक्ष - सौन्दर्य का व्यापक चित्रण - संध्या-सुन्दरी कविता निराला के सौन्दर्य चित्रण की प्रतिभा - ही परिचायक है। इस कविता में सन्ध्या का वर्णन सुन्दरी के रूप में किया गया है, जो परी के समान मी गति से आसमान से धरती पर उतर रही है -
दिवसावसान का समय-
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,
धीरे, धीरे, धीरे ।
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किंतु गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक-
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
प्रकृति का मानवीकरण - निराला ने संध्या को सुन्दरी मानकर उस पर मानवीय क्रियाओं का आरोप किया है। संध्या सुन्दरी अपनी सखी के कंधे पर अपनी बाँह डाले हुए धीरे-धीरे आकाश मार्ग से चली आ रही है। इस चित्र को कवि ने इस प्रकार चित्रित किया है
अलसता की-सी लता,
किंतु कोमलता की वह कली,
सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह सी अम्बर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,
रहस्यात्मक झलक - रहस्यवाद छायावादी कवियों की एक प्रमुख विशेषता है। 'संध्या सुन्दरी' नामक कविता में हमें स्वस्थ प्राकृतिक रूप में, साथ-साथ रहस्यमयी शक्ति की भी अनुपम झलक मिलती है -
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं-
व्योम मंडल में, जगतीतल में-
सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में-
सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में-
धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में-
उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में-
क्षिति में, जल में,नभ में, अनिल-अनल में-
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं-
और क्या है? कुछ नहीं।
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह,
प्याला एक पिलाती।
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।
अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन,
कवि का बढ़ जाता अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कंठ से,
आप निकल पड़ता तब एक विहाग!
कला पक्ष - काव्य-शिल्प की दृष्टि से 'सन्ध्या-सुन्दरी' उत्कृष्ट रचना है। इसमें कवि ने मौन-गम्भीर वातावरण को अत्यन्त सूक्ष्म रेखाओं और संकेतों के माध्यम से साकार किया है।
'सन्ध्या सुन्दरी' कविता शब्द विधान की दृष्टि से अनुपम है। इसके किसी भी शब्द को अनावश्यक मानकर हटाया नहीं जा सकता है। कविता की भाषा भावानुकूल और भावाभिव्यंजन है। निराला की प्रमुख विशेषता मुक्त छन्द का यह सुन्दर उदाहरण है। उत्प्रेक्षा, रूपक, मानवीकरण, उपमा, रूपकातिशयोक्ति, ध्वन्यार्थ व्यंजना आदि अलंकार पूरी कलात्मकता के साथ इस कविता में प्रयुक्त हुए हैं।
संध्या का चित्रण एक सुन्दरी परी व ममतामयी माँ के रूप में किया गया है। प्रकृति के क्रिया व्यापार को मानवीय क्रिया व्यापार के रूप में चित्रित करने के कारण मानवीकरण अलंकार है। साथ ही संध्या के वातावरण की नीरवता और उसके द्वारा बराबरी के साथ सबको अपने आगोश में लेने के वर्णन द्वारा समानता का चित्रण है। संध्या वात्सल्यमयी माँ की तरह है। रस-श्रृंगार, छन्दमुक्त व अलंकार में नवीकरण, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास व ध्वन्यर्थ व्यंजना का प्रयोग द्रष्टव्य है। गीतात्मकता का
सुन्दर प्रवाह है। प्रसाद व माधुर्य गुण का परिणाम है। अभिधा व लक्षणा शब्द शक्ति है। शुद्ध सांस्कृतिक खड़ी बोली का प्रयोग है।' मानवीकरण की शैली है।
- सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" - Suryakant Tripathi "Nirala"
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